गागर में सागर समा गया, सबकी पलकों में जल खरा
पीड़ा कह मत बदनाम करो यह पावन रस अमृत धारा
जिस पल अभिषेक हुआ दुख का मन के आँगन में आंसू से
अंततः सलिला से प्रकटी वह निश्छल गंगा की धारा..

है परेशां आज फिर दिल, माजरा कोई तो है

उलझनों की धुंध है पर रास्ता कोई तो है

पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी है

हैं यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है

दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे

हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..


एक बार बरखुरदार !
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदरहाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।