है परेशां आज फिर दिल, माजरा कोई तो है

उलझनों की धुंध है पर रास्ता कोई तो है

पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी है

हैं यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है

दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे

हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..

6 comments:

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

so beatifull!!! amazing!!!
दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे
हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..
I am stunned. No words to praise these lines.

दिगम्बर नासवा said...

पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी है
हैं यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है
बेहतरीन शेर...........
अच्छा अंदाज़ आपके कहने का

हरकीरत ' हीर' said...

दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे

हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..

बहुत खूब.....!!

साहित्यिका जी ये तीनो शे'र लाजवाब हैं ....बस किसी ग़ज़ल गुरु के सानिध्य में कुछ दिन बिताएं ......!!

Pradeep Kumar said...

bahut achchha likha hai .thodi si durust ho jaaye to char chaand lag jaaye.
ek sher durust karne ki gustaakhi kar rahaa hoon agar bura na lage -
पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी ,
पर यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है.
jahaan tak mujhe lagtaa hai pahle misre main hai ki koi zaroorat nahi hai.
pataa nahi aapne ghazal poori kyon nahi ki ?

Pradeep Kumar said...

दे गया हर तजुर्बा अपने सफर का जो मुझे,

हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है.

is sher ko bhi aise kahaa ja saktaa hai .
meri maaniye to is ghazal ko poora keejiye

Miss Komal said...

beautiful !

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