The problem with Women is that the things they like in a Person are the very same thing they want to change in that person..!!
गागर में सागर समा गया, सबकी पलकों में जल खरा
पीड़ा कह मत बदनाम करो यह पावन रस अमृत धारा
जिस पल अभिषेक हुआ दुख का मन के आँगन में आंसू से
अंततः सलिला से प्रकटी वह निश्छल गंगा की धारा..
है परेशां आज फिर दिल, माजरा कोई तो है
उलझनों की धुंध है पर रास्ता कोई तो है
पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी है
हैं यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है
दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे
हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..
एक बार बरखुरदार !
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदरहाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
कितनी और समीक्षा होगी?
कितनी और परीक्षा लोगे?
सदियों से तुम पति बने हो
कब तुम मेरे मित्र बनोगे??
आगे आगे तुम चलते हो
आँख मूँद मैं चलती पीछे
कदम से मेरे कदम मिला कर
कब तुम मेरे संग चलोगे??
कितनी और परीक्षा लोगे?
कितनी और समीक्षा होगी?
शब्दों को तुम समझ ना पाते
मौन के भी तुम अर्थ लगाते
मेरे मन की बात समझ के
कब मेरी भाषा समझोगे??
मेरा भी अपना एक मन है
देह के बाहर भी जीवन है
अपनी कैद में रख कर मुझको
कितना और कब तक परखोगे??
कितनी और समीक्षा होगी??
कितनी और परीक्षा होगी??
(एक मित्र द्वारा जोड़ी गयी कुछ पंक्तियाँ )
युग युग से अग्नि पर चली हूँ
रेखाओ से मैं ही बंधी हूँ
संग हर पल हर क्षण कब तुम रहोगे
सीमाओ से परे कब तुम मुझे करोगे??
कितनी और परीक्षा लोगे?
सदियों से तुम पति बने हो
कब तुम मेरे मित्र बनोगे??
आगे आगे तुम चलते हो
आँख मूँद मैं चलती पीछे
कदम से मेरे कदम मिला कर
कब तुम मेरे संग चलोगे??
कितनी और परीक्षा लोगे?
कितनी और समीक्षा होगी?
शब्दों को तुम समझ ना पाते
मौन के भी तुम अर्थ लगाते
मेरे मन की बात समझ के
कब मेरी भाषा समझोगे??
मेरा भी अपना एक मन है
देह के बाहर भी जीवन है
अपनी कैद में रख कर मुझको
कितना और कब तक परखोगे??
कितनी और समीक्षा होगी??
कितनी और परीक्षा होगी??
(एक मित्र द्वारा जोड़ी गयी कुछ पंक्तियाँ )
युग युग से अग्नि पर चली हूँ
रेखाओ से मैं ही बंधी हूँ
संग हर पल हर क्षण कब तुम रहोगे
सीमाओ से परे कब तुम मुझे करोगे??
दुःख अपने सबको बतलाना
सच पूछो कोई खेल नहीं ...
गैर के दिल में दर्द जगाना
सच पूछो कोई खेल नहीं ..
अक्सर दिल के भावो की
चेहरा चुगली कर देता है ..
ना ना करके प्यार जताना
सच पूछो कोई खेल नहीं
माना गगन से आदित्य आज दूर है ....
पर छितिज़ में आगमन के चिह्न जरुर है .....
दूरिया हो सकती है मात्र दृष्टि भ्रम...
पर स्मृतियों में हमारा साथ जरुर है ...
तुम्हारे नेह को मैंने लगा दिया चन्दनतुम्हारे स्नेह को मैंने बना दिया बन्धन
तुम्हारी यादो को मैंने ओड़ा और बिछाया है
इस तरह प्रीत का गीत मैंने गाया है.....
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