गागर में सागर समा गया, सबकी पलकों में जल खरा
पीड़ा कह मत बदनाम करो यह पावन रस अमृत धारा
जिस पल अभिषेक हुआ दुख का मन के आँगन में आंसू से
अंततः सलिला से प्रकटी वह निश्छल गंगा की धारा..
इन्टरनेट पर यंहा वंहा भटकते हुए... कभी कभी कुछ कविताये. कुछ छंद .. कुछ शायरियां जो भी पसदं आई.. या कुछ किताबो या किसी से सुनी हुयी.. जो भी पसंद आई.. उनका एक संकलन है यंहा.. ताकि आप सभी इसे पढ़ सके.. और इन प्यारी पंक्तियों का रस ले सके..
है परेशां आज फिर दिल, माजरा कोई तो है
उलझनों की धुंध है पर रास्ता कोई तो है
पत्थरों के इस शहर में बुत बना हर आदमी है
हैं यकीं फिर भी मुझे यंहा जानता कोई तो है
दे गया जो हर तजुर्बा अपने सफर का है मुझे
हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है..