एक बार बरखुरदार !
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदरहाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।

3 comments:

Anonymous said...

bahut badhia
shandar likhi hai

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

सिर्फ दान पुण्य ही नही बल्कि रुपये को उसके अस्तित्व का यहसास भी सिक्का ही दिलाता है.अर्थपूर्ण कविता.

Shamikh Faraz said...

bahut khoob sahitika ji. bahut khub. gar kabhi waqt mile to mere blog par aayen.www.salaamzindadili.blogspot.com

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